// ग़ज़ल //
ख़्वाब देखें थे घर में क्या क्या कुछ
मुश्किलें हैं सफ़र में क्या क्या कुछ
फूल से जिस्म चाँद से चेहरे
तैरता है नज़र में क्या क्या कुछ
तेरी यादें भी अहल-ए-दुनिया भी
हम ने रक्खा है सर में क्या क्या कुछ
ढूढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता
था हमारे भी घर में क्या क्या कुछ
शाम तक तो नगर सलामत था
हो गया रात भर में क्या क्या कुछ
हम से पूछो न जिंदगी 'परवाज़'
थी हमारी नज़र में क्या क्या कुछ
जतिन्दर परवाज़
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
ग़ज़ल समा'त फ़रमाएँ
मुझ को खंज़र थमा दिया जाए
फिर मिरा इम्तिहाँ लिया जाए
ख़त को नज़रों से चूम लूँ पहले
फिर हवा में उड़ा दिया जाए
तोड़ना हो अगर सितारों को
आसमाँ को झुका लिया जाए
जिस पे नफरत के फूल उगते हों
उस शजर को गिरा दिया जाए
एक छप्पर अभी सलामत है
बारिशों को बता दिया जाए
सोचता हूँ के अब चरागों को
कोई सूरज दिखा दिया जाए
फिर मिरा इम्तिहाँ लिया जाए
ख़त को नज़रों से चूम लूँ पहले
फिर हवा में उड़ा दिया जाए
तोड़ना हो अगर सितारों को
आसमाँ को झुका लिया जाए
जिस पे नफरत के फूल उगते हों
उस शजर को गिरा दिया जाए
एक छप्पर अभी सलामत है
बारिशों को बता दिया जाए
सोचता हूँ के अब चरागों को
कोई सूरज दिखा दिया जाए
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
ग़ज़ल पे'शे खिदमत है...
यूँ ही उदास है दिल बेक़रार थोड़ी है
मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़ी है
नज़र मिला के भी तुम से गिला करूँ कैसे
तुम्हारे दिल पे मेरा इख्तियार थोड़ी है
मुझे भी नींद न आए उसे भी चैन न हो
हमारे बीच भला इतना प्यार थोड़ी है
खिज़ा ही ढूंडती रहती है दर-ब-दर मुझको
मेरी तलाश मैं पागल बहार थोड़ी है
न जाने कौन यहाँ सांप बन के डस जाए
यहाँ किसी का कोई एतबार थोड़ी है
जतिंदर परवाज़
मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़ी है
नज़र मिला के भी तुम से गिला करूँ कैसे
तुम्हारे दिल पे मेरा इख्तियार थोड़ी है
मुझे भी नींद न आए उसे भी चैन न हो
हमारे बीच भला इतना प्यार थोड़ी है
खिज़ा ही ढूंडती रहती है दर-ब-दर मुझको
मेरी तलाश मैं पागल बहार थोड़ी है
न जाने कौन यहाँ सांप बन के डस जाए
यहाँ किसी का कोई एतबार थोड़ी है
जतिंदर परवाज़
तास्वीरें बोलती हैं
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रविवार, 22 फ़रवरी 2009
मेरी एक ग़ज़ल
बारिशों में नहाना भूल गए
तुम भी क्या वो ज़माना भूल गए
कम्प्पुटर किताबें याद रहीं
तितलियों का ठिकाना भूल गए
फल तो आते नहीं थे पेडों पर
अब तो पंछी भी आना भूल गए
यूँ उसे याद कर के रोते हैं
जेसे कोई ख़ज़ाना भूल गए
मैं तो बचपन से ही हूँ संजीदा
तुम भी अब मुस्कराना भूल गये
जतिन्दर परवाज़
तुम भी क्या वो ज़माना भूल गए
कम्प्पुटर किताबें याद रहीं
तितलियों का ठिकाना भूल गए
फल तो आते नहीं थे पेडों पर
अब तो पंछी भी आना भूल गए
यूँ उसे याद कर के रोते हैं
जेसे कोई ख़ज़ाना भूल गए
मैं तो बचपन से ही हूँ संजीदा
तुम भी अब मुस्कराना भूल गये
जतिन्दर परवाज़
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
ग़ज़ल
// मेरी एक ग़ज़ल //
वो नज़रों से मेरी नज़र काटता है
मुहब्बत का पहला असर काटता है
मुझे घर मैं भी चैन पड़ता नही था
सफ़र में हूँ अब तो सफ़र काटता है
ये माँ की दुआएं हिफाज़त करेंगी
ये ताबीज़ सब की नज़र काटता है
तुम्हारी जफा पर मैं गज़लें कहूँगा
सुना है हुनर को हुनर काटता है
ये फिरका-परसती ये नफ़रत की आंधी
पड़ोसी, पड़ोसी का सर काटता है
जतिन्दर परवाज़
गाँव - शाहपुर कंडी,
तहसील - पठानकोट , पंजाब
mob delhi- 9868985658
वो नज़रों से मेरी नज़र काटता है
मुहब्बत का पहला असर काटता है
मुझे घर मैं भी चैन पड़ता नही था
सफ़र में हूँ अब तो सफ़र काटता है
ये माँ की दुआएं हिफाज़त करेंगी
ये ताबीज़ सब की नज़र काटता है
तुम्हारी जफा पर मैं गज़लें कहूँगा
सुना है हुनर को हुनर काटता है
ये फिरका-परसती ये नफ़रत की आंधी
पड़ोसी, पड़ोसी का सर काटता है
जतिन्दर परवाज़
गाँव - शाहपुर कंडी,
तहसील - पठानकोट , पंजाब
mob delhi- 9868985658
सोमवार, 16 फ़रवरी 2009
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