रविवार, 22 फ़रवरी 2009

मेरी एक ग़ज़ल

बारिशों में नहाना भूल गए
तुम भी क्या वो ज़माना भूल गए

कम्प्पुटर किताबें याद रहीं
तितलियों का ठिकाना भूल गए

फल तो आते नहीं थे पेडों पर
अब तो पंछी भी आना भूल गए

यूँ उसे याद कर के रोते हैं
जेसे कोई ख़ज़ाना भूल गए

मैं तो बचपन से ही हूँ संजीदा
तुम भी अब मुस्कराना भूल गये

जतिन्दर परवाज़

8 टिप्‍पणियां:

  1. फल तो आते नहीं थे पेडों पर
    अब तो पंछी भी आना भूल गए

    अच्छी ग़ज़ल कही.

    जवाब देंहटाएं
  2. फल तो आते नहीं थे पेडों पर
    अब तो पंछी भी आना भूल गए

    -बहुत उम्दा गज़ल.

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने...हर शेर लाजवाब है...बधाई...
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  4. फल तो आते नहीं थे पेडों पर
    अब तो पंछी भी आना भूल गए

    यूँ उसे याद कर के रोते हैं
    जेसे कोई ख़ज़ाना भूल गए

    आपने तो दीवाना बना दिया अपनी ग़ज़लों का
    कितने खूबसूरत शेर है सब के सब
    मज़ा आयेगा आपको पढ़ कर आगे भी.
    मेरे ब्लॉग पर भी कुछ गज़लें पढें, अच्छी लगें तो बताएं

    जवाब देंहटाएं

jatinderparwaaz@gmail.com