बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

ग़ज़ल समा'त फ़रमाएँ

मुझ को खंज़र थमा दिया जाए
फिर मिरा इम्तिहाँ लिया जाए

ख़त को नज़रों से चूम लूँ पहले
फिर हवा में उड़ा दिया जाए

तोड़ना हो अगर सितारों को
आसमाँ को झुका लिया जाए

जिस पे नफरत के फूल उगते हों
उस शजर को गिरा दिया जाए

एक छप्पर अभी सलामत है
बारिशों को बता दिया जाए

सोचता हूँ के अब चरागों को
कोई सूरज दिखा दिया जाए

7 टिप्‍पणियां:

  1. तोड़ना हो अगर सितारों को
    आसमाँ को झुका लिया जाए
    जिस पे नफरत के फुल उगते हों
    उस शजर को गिरा दिया जाए
    बहुत प्यारी रचना है...बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह भाई परवाज़ साहब ..............क्या ग़ज़ल कही है,
    विद्रोह के तेवर साफ़ नज़र आते हैं, एक उमंग, एक ललक नज़र आती है इस अभिव्यक्ति में
    हरे शेर जूरदार है.
    मेरे ब्लॉग पर भी एक ग़ज़ल लिखी है पढें और बताएं अगर कोई कमी रह गयी हो तो

    जवाब देंहटाएं
  3. Waah ! Waah ! Waah !

    Bahut hi umda...lajawaab kalaam hai.Harek sher sundar.

    जवाब देंहटाएं
  4. भाई क्या बात है. लाजवाब कर गए आप.

    जवाब देंहटाएं
  5. परवाज़ साहब आपकी गज़लें बहुत पसंद आईं .

    जवाब देंहटाएं
  6. जतिंदर साहब की गज़लों का मैं उसी वक़्त से फैन हूँ जब शायद मैंने उनका पहला शेर पढ़ा होगा, इनके किसी एक अशआर की तारीफ करना दुसरे के साथ नाइंसाफी है, इसलिए तारीफ ग़ज़ल की करना बेमानी है और मैं सिर्फ उस नाम की तारीफ करना चाहता हूँ जो आज साहित्य को चाहने वालों की जुबान पर है लेकिन कल बच्चे बच्चे की जुबान पर होगा और ग़ज़ल लेखन को एक नया आयाम देगा.

    जवाब देंहटाएं

jatinderparwaaz@gmail.com